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मांग की कमी के चलते , बंद पड़ा है मोदी का बनारसी साड़ी उद्योग

narendra-modi-banarasi-saadi-udyog          वाराणसी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में अपनी कलात्मक खूबसूरती के लिए पूरी दुनिया में मशहूर बनारसी साड़ी उद्योग इन दिनों आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है। इन साड़ियों के बुनकर भुखमरी के कगार पर है और अपने परंपरागत व्यवसाय को छोड़कर रिक्शा, ट्रॉली चलाने और सब्जी बेचकर पेट भरने के लिए मजबूर हैं। बनारसी साड़ी के बुनकरों के सामने 1991 की आर्थिक मंदी जैसा दौर फिर आ गया है। ज्यादातर करघे बंद हो गए हैं। साड़ियों की बुनाई का काम ठप पड़ गया है। मांग की कमी के चलते तैयार माल गोदामों में पड़ा है। रोजमर्रा बुनाई कर जीविका चलाने वाले बुनकरों के सामने रोजी रोटी का बंदोबस्त करना मुश्किल हो गया है इसलिए पेट की भूख मिटाने के लिए उन्हें दूसरे शहरों की ओर पलायन करना पड़ रहा है।  
                 जिन बुनकरों की उंगलियां कल तक रेशम पर थिरकती थी वे आज पत्थर तोड़ने पर मजबूर हैं। बनारसी साड़ी उद्योग वाराणसी और उसके आस-पास कस्बों व गांवों में फैला हुआ है। इस उद्योग में लगभग 10 लाख लोग प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से लगे हुए हैं। बनारसी साड़ी व्यवसाय मंदी के दौर से गुजर रहा है। पिछले 10 सालों से लगातार मांग की कमी होती जा रही है जिससे हजारों हथकरघे बंद हो चुके हैं। इसके चलते बड़ी संख्या में बुनकर पलायन कर चुके हैं। बनारसी साड़ी के गद्दीदार भी बनारस से बाहर अपना ठिकाना ढूंढकर व्यवसाय का विकल्प ढूंढ रहे हैं। बनारसी साड़ी उद्योग का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि आज भी यह असंगठित और नेतृत्वविहीन है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि आजादी के बाद आज तक इस क्षेत्र का कोई भी प्रतिनिधि चुनकर नहीं गया जो साड़ी उद्योग के दर्द का मर्म समझता हो। अगर देखा जाए तो बनारसी साड़ी उद्योग के समग्र विकास के सिलसिले में सरकारी स्तर पर की गयी कोशिशों का नतीजा शून्य रहा। 
         बनारसी साड़ी उद्योग बिना किसी सरकारी मदद के बुनकरों की कला, मेहनत व सीमित पूंजी के बल पर चल रहा है। अतीत में जाएं तो 70 से 90 के दशक का दौर इस उद्योग का गोल्डेन पीरियड था। स्थानीय बुनकर एवं साड़ी कारोबारी माल के डंप होने के पीछे सूरत अहमदाबाद को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। सबसे बड़ी समस्या डिजाइन की है। यहां के ज्यादातर बुनकर पुरानी डिजाइन पर काम करते हैं जबकि बाहरी व्यापारी नई डिजायन और तकनीक पर बनी साड़ियां खरीदना चाहता हैं। सरकार की गलत नीतियों के कारण चीन से आयात होने वाला कपड़ा भी इसके लिए जिम्मेदार है। कपड़ा जहां सस्ता होता है वहीं धागा और रेशम मंहगा। बुनकर नेता ए हक के अनुसार यहां रोज 16 लाख मीटर चीनी कपड़ा आता है जिसका असर बनारसी साड़ी पर पड़ रहा है। बुनकर चीनी कपड़े पर प्रतिबंध की मांग कर रहे हैं। एक अन्य साड़ी कारोबारी खलिकुज्जमा का मानना है कि मार्केटिंग और कच्चे माल के अभाव में बनारसी साड़ी उद्योग पनप नहीं रहा है। तकनीकी सुविधा में पिछड़ापन और सरकारी योजनाओं की लूट खसोट का इस उद्योग की बदहाली का कारण बना हुआ है। साड़ी कारोबार में आर्थिक मंदी ने अब बुनकरों को साहूकारों का कर्जदार बना दिया है। कर्ज के पैसे में किसी तरह बुनाई कर दो जून की रोटी का इंतजाम हो रहा है। बनारसी साड़ी के लिए 80 प्रतिशत सिल्क चीन बाकी 20 प्रतिशत कर्नाटक से आता है। 
              विदेशी सिल्क पर काफी आयात कर के कारण चीन से आने वाले रेशम से बनी साड़ियों की लागत बढ़ जाती है। मुनाफे की जगह बुनकरों को घाटा होने लगता है। बनारसी साड़ी उद्योग में बुनकरों को प्रशिक्षित करने की मांग बराबर रही है। बुनकरों की मांग है कि बनारस में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलाजी बनने के साथ ही बुनकर कालोनी, सिल्क यार्न बैंक, फिनिशिंग व डाइंग प्लांट लगाया जाए और मनरेगा की तरह बुनकरों को 150 दिन के काम की गारंटी मिले एवं किसानों की तर्ज पर बकाया बिजली बिल माफ किया जाए और कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराया जाए। बनारसी वस्त्र उद्योग संघ के पूर्व अध्यक्ष अशोक धवन का कहना है कि बनारसी साड़ी उद्योग के गिरते स्तर को सुधारने एवं समृद्धिशाली बनाने के लिए प्रचार व प्रसार की महती आवश्यकता है। आज विज्ञापन की दुनिया में बनारसी साड़ी को भी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नई पीढ़ियों में प्रचार की आवश्यकता है। एक समय था जब कोई भी शादी बनारसी साड़ी के बिना अधूरी रहती थी। बनारसी साड़ी नई नवेली दुल्हन की सुंदरता में चार चांद लगाती थी लेकिन युवा पीढ़ी में इसका क्रेज खत्म होता जा रहा है। अगर सरकार बनारसी साड़ी उद्योग पर ईमानदारी से ध्यान दे एवं कच्चा माल समेत अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराए तो इसमें न केवल एक बार चार चांद लग सकता है बल्कि लाखों बुनकरों की माली हालत बेहतर हो सकती है।
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संपादकीय

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