क्रेबीज़ से मिले अच्छे गुरु
क्रेबीज़ विश्वविद्यालय पहुंचने पर ही डार्विन को अच्छे गुरु
और सहयोगी मिले। अपनी धुन के पक्के डार्विन ने जब पेले
की किताब 'नेचुरल थियोलोजी' पढी, तो उसे संदेह हुआ,
क्योंकि उस किताब में यह बताया गया था कि जीवों में
परिवर्द्धन ईश्वरीय इच्छा के करण प्राकृतिक रूप से होता हे।
इसके बाद डार्विन ने जॉन हर्षेल और अलेवजेंडर वोन हंबोल्ट
को पड़ा । तो उन्हें लगा कि प्रकृति में कुछ रहस्य ऐसे है जिन
पर शोध करने से इस बात पर से पर्दा उठ सकता है कि कैसे
एक ही प्रकार के प्राणी अलग अलग जगहों पर एक दूसरे से
भिन्न दिखाई देते हैँ। डार्विन ने इस बाबत स्थानीय और
व्यक्तिगत स्तर पर कुछ शोध किये और लेख लिखे । इन लेखों
से डार्विन की ख्याति एक युवा शोधकर्ता के रूप में फैलने
लगी।
डार्विन की ऐतिहासिक यात्रा
इसके फलस्वरूप एचएमएस बीगल जहाज की दूसरी
यात्रा के लिए डार्विन को एक युवा सहयोगी और शोधकर्ता के
रूप में भाग लेने के लिए निमंत्रण मिला। पिता इस बात के
लिए राजी नहीं थे कि डार्विन इस कठिन समुद्री यात्रा पर वक्त बर्बाद करने के लिए जाए। एक रिश्तेदार ने पिता को
मनाया और डार्विन एक ऐतिहासिक यात्रा पर निकल पड़े। इस
यात्रा में डार्विन ने मुख्य रूप से समुद्री जंतुओं का अध्ययन
किया । जब जहाज रुक जाता तो डार्विन उस इलाके के जीव -
जंतुओं को अध्ययन करते, उन्हें पकड़ते और अपने साथ
जहाज पर ले लेते । किसी स्थान से वे किसी माध्यम से अपने
नोट्स और जीव-जंतुओं को क्रेबीज़ भेज देते। जहाज की
यात्रा लगभग पाच साल की थी । इन पाच वर्षो के अध्ययन
को डार्विन ने वापस लौटकर लिपिबद्ध किया । 2 अक्टूबर, 1836 को बीगल से लौटने पर डार्विन की शोहरत एक जीवविज्ञानी के रूप में हर तरफ फेल चुकी थी । डार्विन ने
अपनी यात्रा को लिपिबद्ध करने का जो क्रम शुरू किया तो
हजारों लेख लिख डाले। इन लेखों के कारण विज्ञान और
समाज में निरंतर विवाद खडे होने लगे । चर्च क्रो डार्विन की
खोजों के कारण आपत्ति होने लगी। अखबारों में डार्विन को
गलत सिद्ध करने के लिए लगातार हमले होने लगे। क्योकि
डार्विन उस बनी बनाई धार्मिक अवधारणा क्रो चुनौती दे रहे
थे, जो यह मानकर चलती है कि संसार में परिवर्तन सिर्फ
ईश्वरीय इच्छा के करण होते हैँ।
और हंगामा मच गया
लगभग पच्चीस सालॉ के निरंतर अनुसन्धान और लेखन के बाद 1859 में 'द ओरिजिन ऑफ़ स्पेसिज़ ' पूरी हुई । छपते
ही किताब तुरंत बिक गई और हंगामा मच गया । इस किताब का पहले खासा लंबा नाम था , जो 1872 के सातवें संस्करण में संक्षिप्त किया क्या । प्रकाशन बाद क्रेबीज़ विश्वविद्यालय में कुछ धर्मगुरुओं, , बुद्धिजीवियों
और विद्यार्थियों की एक सभा हुई , जिसमे डार्विन पर खूब
हमले किये गये और सवालो की बौछार की गई। डार्विन ने
अविचलित रहते हुए सबका गोर से सुना और अंत में संक्षिप्त
में अपनी बात रखी। डार्विन ने कहा कि कुदरती तौर पर प्रत्येक जीव स्वयं का बचाने और अपना वंश बढ़ाने का प्रयास
करता है । काल और परिस्थिति के मुताबिक वह स्वयं को बदलता है, यह बदलाव है प्राकृतिक चयन का सिद्धात है,
जिससे नए प्राणियों की उत्पत्ति होती है और प्राणिजगत का
विकास होता है । डार्विन ने कहा कि आज आप भले है मेरी बात से सहमत न हैं, इसमे में कुछ नहीं कर सक्ता, लेकिन
जो सच है में उससे इन्कार नहीं कर सकता, समय के साथ
आपको ही नहीं दुनिया को भी मानना पडेगा, क्योकि इस दुनिया को इसी सिद्धात चलते अपना अस्तित्व बनाए रखना होगा ।
डार्विन की इस किताब ने ही आगे बलकर विज्ञान में कई नईं
शाखाओं को शुरुआत की । आधुनिक वनस्पतिशास्त्र,
कोशिकीय जीवविज्ञान और जीवविज्ञान जैसे विषय डार्विन
को पुस्तक के कारन ही जन्मे और आधुनिक विज्ञान का
नया स्वरूप विकसित हुआ ।
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